कांकड़ रा भोमिया''

''कांकड़ रा भोमिया''

पहले पैदल होता था । उन्ही तालरो में टप्पे मारते मारते कभी खेतो के बीच मतीरे की खुपरी के पानी को पीकर अपनी प्यास बुझाता था , आज फटफटी (मोटरसाइकिल) पर हु उन्ही तालरो के अंदर बने रास्तो के पानी को चीरती हुई फटफटी खेतो  को मेरे करीब ला रही है परंतु अब मुझे पीने को खुपरी वाला पानी नही बल्कि मोटर लगी ट्यूबवैल का वो पानी जिसे बटन दबाते ही हजारो लोग पिये जितना पानी आ जाये पर जो बात उस बरसाती मतीरे की खुपरी वाले पानी की संतुष्टि में थी वो इसमे नही । खैर फटफटी ने उसे समय को बचाकर खेत पहुँचा तो दिया लेकिन वहाँ पर न तो मोटोजी आले भिंतिये री चोटी दिखी , न ही प्रह्लादजी आली चाय री मनवार , न ही दूर दूर तक कोई छांग चराता ग्वाला जंहा से दूध लाकर दिन में दस बार चाय घुटती थी । चारो तरफ तारबंदी मानो खेतो को जेल मे बन्द कर दिया हो । पहले छांगे होती थी तो तारबंदी नही अब वो नही है तो तारबंदी है मानो इंसान खेतो को खा रहा है । अब तुम्बो का खारापन भी हाथो में नही होता , न ही वो टूल्ले थे जिसके नीचे गायो व चोंगो के ग्वालो का दोपहरी विश्राम होता था , जो पगडंडिया थी वो भी नही रही । दूर दूर तक नजर घुमाई तो मिला एक सपाट सा खेत जिसमे कोई भी आकड़ा , टूल्ला नजर नही आ रहा था । लोग खुश है खेतो को वृक्षविहीन करके की अच्छी फ़सले होगी , पक्षी नही बैठ पाएंगे तो फ़सल के दाने नही खा पाएंगे । कितनी प्रगति कर ली इंसान ने इस वैज्ञानिक युग मे कि पेड़ पौधों को काटकर अच्छी फ़सले लेने के ख्वाब देखने लग गया । वो रास्ते , वो पगडंडिया , वो पक्षी जिनके आसरे छीन चुके है न जाने कितना बदल चुका है खेतो का रूप ,खलिहानों का रूप  । खेतो के सपाट भाग पर चलते चलते उसकी नजर एक मात्र टुल्ले पर पड़ी जो अपनी एक विशेष  वजह से अस्तित्व बनाये हुए था क्योकि वहाँ कांकड़ के भोमियोजी का स्थान था , जिन्होंने न जाने कितने वर्षों से खेतों की रखवाली की थी और आज वो ही इस बदलते स्वरूप को अपने रुग्ण मन से देख रहे थे । न जाने कितने अकाल पड़े ।  कितनी पीढ़ियों ने यहाँ पर आकर हल्लोतीये से पहले सवा रुपये की प्रसाद चढ़ा के ही हल्लोतिया किया । पर आज टुल्लो का वर्चस्व ही खत्म कर दिया । उसके कदम उस भोमियोजी के स्थान पर जाकर रुके । हाथ जोड़े । देखा चारो तरफ टूल्ले की टहनियाँ पड़ी है सुस्ताने वाले जीव ओर वो पुराने आदमी रहे नही ओर आज का जिंसिया शहरी यहाँ आकर करे भी क्या । पत्थर स्वरूप मूर्ति बहुत कुछ कहने को आतुर थी पास में पड़े लोहे के दानपात्र जिसे शायद अभी लगाया गया था । उसने अपना कुछ समय वहाँ बिताया बड़ा सुकून मिलता है इन रेगिस्तान के टुल्लो की छांव में जो शहरी एयरकंडीशनर की हवा से कही गुना बेहतर है । दानपेटी में दान के स्वरूप पैसे चढाए जाते है  पर कांकड़ के भोमियो की अन्तरात्मा यही बया कर रही थी कि ना वो खेत रहे , ना वो लोग रहे , ना ही वो टूल्ले जिसमे पंछियो का बसेरा होता था । अब सब कुछ वैज्ञानिक पीढ़ी के अनुरूप होने लगा है । वो समय गया जब हल्लोतिये में बरसाले की रुत में सवा रुपये की मिश्री से हल की सुरुआत होती थी । अब ना ही वो हल्लोतीये होते है ना ही कांकड़ के भोमिये को कोई पूछता है। ना भिनत की भनकार सुनाई देती है ना ही ढालुओ , पाको की सुगंध । बदलते परिवेश , वैज्ञानिक युग की नई तकनीक ने या कुछ और मानो, सब कुछ बदल सा  दिया । वो बुझे मन से घर पहुचा और 'बा'के पास जाकर कांकड़ के भोमिये की हालातो को बताया ।'बा' बोले "दिकरा हमे कुन पूछे कोंकड रे भोमिये नो पेल हलोतिये रे टेम नारेल , प्रसाद चढावता । हमे हलोतीया रया कोनी आजकल रा छोरा दिकरा जावे ट्रेक्टरों हो पुपाङ बजाय पासा आवे , भोमियो नो कुन पूछ हमे , कोंकड  रया कोनी । आपो आलो मो कोई जावे जद प्रसाद छाड़े आवे , प्रह्लाद आवे कोणी हमे बूढ़ो पो हुयो उवेरा छोरा इया मजाल बलके ही कोनी" । उनकी बातों ने कई विचारो को जन्म दिया सोचा बहुत मगर समाधान कंही नही था कोई । मन ही मन सोचा गिरते तापमान , अनियमित बरसात  ,मौसम में बदलाव , और बदलती पर्यावरणीय परिवेश का जिम्मेदार कौन है यदि हर पेड़ पौधे को कांकड़ के भोमिये का स्वरूप समझकर छोड़ दिया होता  तो आज के हालातों पर मंत्रणा करने की जरूरत नही पड़ती । हा ! जरूर खेती का वैज्ञानिक तकनीकी रूप अब प्रगतिशील किसानों के हित मैं माना जाता है लेकिन अब वो मतीरे , ख़ाकडी , काचरिये , ग्वारफली का स्वाद नही रहा । अब वो बात नही जो इन दोहो में थी ।


 "खावन मीठी बाजरी ,माथे घी री डली ।
पावना छिलका करे , आवे देश भली ।। 

Comments

हितेश said…
मंजर बदल गए शहर बदल गए ..कुछ रस्ते कुछ पत्थर अभी वही है
हम रोटी की तलाश क्या क्या बदल गये ...हा मगर दिल अभी वही है मेरा मन अभी वही है

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